पिता की निर्ब्याज याद / मुसाफ़िर बैठा
बचपन में गुजर गए पिता की
याद का कोई ठोस मूलधन भी
नहीं है मेरे पास
जिस पर
यादों का कोई ब्याज
जोड़-अरज पाऊं मैं
पिता के बारे में अलबत्ता
मां के बयानों को कूट-छांटकर
मेरे मन ने
जो इक छवि गढ़ी है पिता की
उसमें पिता का
जो अक्स उभरता है झक भोरा
उस हिसाब से
उन जैसों के लिए
इस सयानी दुनिया का कोई सांचा
कतई फिट नहीं बैठता
जहां वे रह-गुजर कर सकते
मां की कभी भूल से भी
पिता की डांट-डपट खाने की
हसरत नहीं हो पाई पूरी
और मेरा बाल-सुलभ अधिकार
जो बनता था
पिता की डांट-धमक का
चेतक धन पाने का
उसके दैनिक हिसाब का एक हर्फ भी
नहीं लिख सके थे पिता मेरे नाम
और इस मोर्चे पर
साफ कर्तव्यच्युत सा रह गये थे वे
अब जबकि
मेरी डांट-धमक से
मेरे बच्चों की दैनन्दिनी
और पत्नी की
अनियतकालिक बही-खाते के पन्नों को
भरा-पूरा देखती हैं
मेरी जर्जर काय स्मृतिपूरित पचासी वर्षीया मां
तो उनका हिय जुरा जाता है
मानो उस डायरी और बही-खाते के
हर एक अक्षर का
खुद भी एक हिस्सा बन गई हों वे ।
2005