Last modified on 23 दिसम्बर 2007, at 12:40

जाने क्यों / नेमिचन्द्र जैन

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:40, 23 दिसम्बर 2007 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


जाने क्यों, प्रिय,

जी भर कर बातें हो न सकीं

बढ़ गया दर्द इतना ये आँखें रो न सकीं

बहुतेरा ही दुलराया-बहलाया मन को

पर जगी हुई काली छायाएँ सो न सकीं ।


(1945 में बनारस में रचित)