भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नियंत्रण / नरेश अग्रवाल

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:14, 9 मई 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जिन रातों में हमने उत्सव मनाए
फिर उन्हीं रातों को देखकर हम डर गए
जीवन संचारित होता है जहाँ से
अपार प्रफुल्लता लाते हुए

जब असंचालित हो जाता है
कच्चे अनुभवों के छोर से
ये विपत्तियाँ हीं तो हैं ।

कमरे के भीतर गमलों में
ढेरों फूल कभी नहीं आएँगे
एक दिन मिट्टी ही खा जाएगी
उनकी सड़ी-गली डालियाँ ।

बहादुर योद्धा तलवार से नहीं
अपने पराक्रम से जीतते हैं
और बिना तलवार के भी
वे उतने ही पराक्रमी हैं ।

सारे नियंत्रण को ताक़त चाहिए
और वो मैं ढूँढ़ता हूँ अपने आप में
कहाँ है वो? कैसे उसे संचालित करूँ ?

कभी हार नहीं मानता किसी का भी जीवन
वह उसे बचाए रखने के लिए पूरे प्रयत्न करता है
और मैं अपनी ताक़त के सारे स्रोत ढूँढ़कर
फिर से बलिष्ठ हो जाता हूँ।