जहां प्रेम तड़प रहा / राकेश प्रियदर्शी
हवा! तेज मत बहो,
मन की धुरी पर
इच्छाओं की पृथ्वी स्थिर है
पृथ्वी इन्द्रधनुष या मयूर पंख सी है,
अंधेरी रातों के जगमगाते
अनगिनत सितारे उस मयूर पंख
में सिमट आए हैं,
चन्द्रमा की चांदनी मयूर पंख को
नहला रही है
उफ़! यह आभा कहीं विक्षिप्त न कर दे
मैं अनजान पथ पर बढ़ता
सूने आसमान की निस्तब्ध्ता को
दूर तक निहारता जा रहा हूं
रक्ताभ सूरज पूरब से पश्चिम की ओर
तीव्र गति से घूम रहा है,
पर मेरी धमनियों की फड़फड़ाती आंखें
सिर्फ़ पूरब दिशा की ओर तुम्हें देखना चाहती है,
इच्छाओं की दैनिक गति के बावजूद
मेरे हिस्से सिर्फ़ रात ही रात है,
अंधेरों की आंधियां हैं
एक तुम हो कि वर्ष दर वर्ष
सिर्फ़ मेरे बारे में सोचती हो
वृहस्पति व्रत रखती हो, मुझे पा जाने के लिए
तुम्हारे मन की वार्षिक गति के बावजूद
मौसम परिवर्तन नहीं होता है
तुम्हारे जीवन की बगिया में बसंत नहीं आता
सावन झूमकर मदनोत्सव नहीं मनाता,
सिर्फ पतझड़ ज़ार-ज़ार आंसू बहाता है
हां, तुम्हारे हिस्से का मौसम सिर्फ पतझड़ है,
सच, वृक्ष और लता में व्यवकलन करते
हुए उस कवि का आहत मन अकसर भारी
अन्तर का व्यवकलनफल पाता है
मैं तुम्हारी अंधेरी कोठरियों में
रोशनी भरना चाहता हूं,
पर, खुद मैं भी अंधेरों में हूं,
रोशनी की तलाश मुझे भी है