भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
प्रेम / नीरज दइया
Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:24, 22 अक्टूबर 2015 का अवतरण
म्हैं करूंला प्रेम, पण प्रगट नीं करूंला । जाणूं कोई नीं रोक सकै प्रेम नै बो जठै-जद चावै प्रगट होवै, प्रगट होवण री सगळी सगती हुवै प्रेम मांय अर बा सगती जे म्हैं लुको सकूं तो सफळ होवैला म्हारो प्रेम ।
म्हैं नीं बता सकूं प्रेम री इकाई, सो म्हैं प्रगट नीं करूंला- म्हारो प्रेम ।
म्हैं कर लियो प्रेम अटकता-भटकता, संकता-संकता क्यूं कै म्हैं नीं चावतो हो प्रेम अर म्हैं आगूंच कर चुक्यो हो प्रेम ।
किणी प्रेम रै माप सूं ई करी जा सकै परख प्रेम री, पण म्हैं नीं चावूं । मोलावणो-तोलावणो हुयां प्रेम री जान निकळ जावै । सो इण नांव बिहूणै प्रेम नै लुको सकूंला तद ई सफळ होवैला प्रेम ।