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तुलसी सरनाम गुलाम है / माया मृग

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लोग

तुलसी महान है
शत-शत बार धन्य है,
वह राम नाम का गुलाम !
गुलामी राम नाम की
बेहतर है-बहुत बेहतर है
संसार की सारी
स्वतंत्रताओं से।
‘‘हरि अनंत-हरि कथा अनंता
तुलसी कहहिं, सुनहिं सब संता। ’’

रत्ना

तुम अंधे हो गये हो प्रिय !
कैसा नेह है तुम्हारा
विवेक का अंश तक नहीं ?
नेह और वह भी देह से ?
धिक् है ऐसा प्रेम
धिक् है प्रिय -
तुम्हें प्रियतम कहते भी
होती है लज्जा
जिसके नेह का केन्द्र हो गये हैं
हाड़-अस्थि, मांस-मज्जा।
ऐसा नही नेह जो होता
रामपद में तुम्हारा,
पा जाते निर्वाण और
मिट जाता मोह-भ्रम सारा।
अब यूं न तको प्रिय-
जाओ-
श्रीरामपद ही तुम्हारी साधना,
तुम्हारे नेह के प्रतिपाद्य हों
जाओं प्रियतम
राम रटो-राम रटो !

तुलसी

जाऊंगा प्रिय !
रामपद में नेह धरने
तुम कहती हो तो
भव से तरने
जाऊँगा मैं।

लोग

मानस के पृष्ठों में से
रह-रह झांकता रहा
तुलसी का ‘रामबोला’ मन
‘जाकै प्रिय न राम वैदेही’
बरसों गाता रहा वह।
धन्य है उसका पागलपन।
धन्य है तुलसी !
धन्य है रत्ना,
जो गुरू बन गई।
ज्ञान की ज्योति से
जगमगा उठा तुलसी का जीवन
रामनाम में नहा उठा
तुलसी का मन !

कवि

मूर्ख है सारे लोग ।
ऐसा नही था तुलसी,
ऐसा नही है तुलसी।
तुलसी राम का गुलाम कब था ?
ये सब क्या है ?
सच क्या है, बोलो तुलसी
सच क्या है ?

तुलसी

हाँ,
सच यही है कवि।
मैं राम का गुलाम कहाँ ?
मैं तो रत्ना का ही गुलाम ठहरा।
उसने कहा राम रटो
मैंने राम रटा
वह कहती कबूतर रटता
राम हो या कबूतर
तुलसी को रटना है-
क्योंकि
तुलसी रत्ना का गुलाम था
तुलसी रत्ना का गुलाम है !