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हर रोज़ / माधवी शर्मा गुलेरी
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हर रोज़
बेकल रात को
बुनती हूँ
इक नया सपना ।
कुछ सपने सदाबहार हैं
तितली कोई पकड़कर
बंद करना हौले से मुट्ठी
या उड़ते जाना अविराम
मीलों आगे, दिशाहीन ।
हर सुबह देखती हूँ
हथेली पर बिखरे
तितलियों के वो
रंग अनगिन
और
रंग देती हूँ तुम्हें ।
हर सुबह देखती हूँ
हथेली पर ठहरा वो
आकाश अनन्त
और
भर लेती हूँ उड़ान
लिए साथ तुम्हें ।