भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रात को मोर / प्रयाग शुक्ल
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:05, 1 जनवरी 2009 का अवतरण
बोलते हैं मोर
रह-रह
रात को ।
रात को
रह-रह ।
बहुत गहरे ।
बहुत गहरे ।
अंधेरे में ।
नींद के इन
किन कपाटों
बीच ।
रह-रह
बोलते हैं--
रात को ।