भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इंतज़ार-१ / सत्यानन्द निरुपम
Kavita Kosh से
कागा कई बार आज सुबह से मुंडेर पर बोल गया
सूरज माथे से आखों में में उतर रहा
मगर...
कई बार यूँ लगा कि साइकिल की घंटी ही बजी हो
दौड़कर देहरी तक पहुंचा तो
शिरीष का पेड़ भी अकेला है
ओसारे पर किसी की आमद तो नहीं दिखती
सड़क का सूनापन आँखों में उतर आता है
कहीं गहरे से सांस एक भारी निकलती है
लगता है अपना ही बोझ खुद ढोया नहीं जायेगा
हवा में हाथ उठता है
किसी का कंधा नहीं मिलता
अंगुलियां चौखट पर कसती चली जाती हैं
उम्मीदें भरभराकर जमीन पर बैठ जाती हैं
बेचैनी की तपिश माथे में सिमट आती है
खूब-खूब पानी का छींटा भी दिलासा नहीं देता
जाने दिल को जो चाहिए
वह चाहिए ही क्यों
हर सवाल का हरदम जवाब नहीं होता
लेकिन ऐसा तो नहीं होता कि
रास्ते अनुत्तरित दिशाओं को जाते हों