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वनवास लिये बैठा हूं/वीरेन्द्र खरे अकेला

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मुझसे मत संबंध बनाने की सोचो, मैं
असफलताओं का इतिहास लिए बैठा हूँ
मेरे दिल की हर धड़कन गिरवी रक्खी है
और उधारी वाली साँस लिए बैठा हूँ

माना मैंने, ऊँचे हैं आदर्श तुम्हारे
किन्तु धैर्य की भी निश्चित सीमा होती है
निश्चित किसी समय तक ही तो अब की सीता
अश्रु राम के अपनी पलकों पर ढोती है
चौदह वर्षों का वनवास राम ने भोगा
मैं जीवन भर का वनवास लिए बैठा हूँ
मुझसे मत संबंध...

दुख में मुस्काते रहना आता है जिसको
उसको सुख का व्यापारी समझा जाता है
सुन्दर-स्वच्छ आवरण में लिपटा रहता जो
हाँ, वो ही सामान बहुत सबको भाता है
नक़ली मुस्कानों का परदा ज़रा उठा कर
देखो मैं कितना संत्रास लिए बैठा हूँ
मुझसे मत संबंध...

मुझसे नाता जोड़ न करना तुम नादानी
अपने मग में शूल स्वयं ही मत बिखराना
बिलग शाख से हुआ पुष्प है कितने दिन का
दहक चुके अंगारे का अब कौन ठिकाना
मुझमें जीवन दिखा कहाँ से तुमको, मैं तो
पल-पल मरने का आभास लिए बैठा हूँ
मुझसे मत संबंध...