परिणति / दुष्यंत कुमार
आत्मसिद्ध थीं तुम कभी!
स्वयं में समोने को भविष्यत् के स्वप्न
नयनों से वेगवान सुषमा उमड़ती थी,
आश्वस्त अंतस की प्रतिज्ञा की तरह
तन से स्निग्ध मांसलता फूट पड़ती थी
जिसमें रस था:
पर अब तो
बच्चों ने जैसे
चाकू से खोद खोद कर
विकृत कर दिया हो किसी आम के तने को
गोंद पाने के लिए:
सपनों के उद्वेलन
बचपन के खेल बनकर रह गए;
शुष्क सरिता का अंतहीन मरुथल!
स्थिर....नियत.....पूर्व निर्धारित सा जीवन-क्रम
तोष-असंतोष-हीन,
शब्द गए
केवल अधर रह गए;
सुख-दुख की परिधि हुई सीमित
गीले-सूखे ईंधन तक,
अनुभूतियों का कर्मठ ओज बना
राँधना-खिलाना
यौवन के झनझनाते स्वरों की परिणति
लोरियाँ गुनगुनाना
(मुन्ने को चुपाने के लिए!)
किसी प्रेम-पत्र सदृश
आज वह भविष्यत्!
फ़र्श पर टुकड़ों में बिखरा पड़ा है
क्षत-विक्षत!