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सोचा था / रमेश रंजक

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जाने किन सिरफिरे अभावों में
रद्दी के भाव बिक गए हैं हम
                          बेमौसम ।

आए थे ताज़े अख़बार-से
                   सवेरा था
धूप में नहाए तो बुढ़ियाये
निज-निर्मित कुण्ठ के घेरों से
                           ऊबे तो
अपने अवमूल्यन पर पछताए

सोचा था तैर कर समुन्दर की
लहरों पर नाम लिख गए हैं हम
                         कितना भ्रम ।