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सूच्छम चरन चलावत बल करि / सूरदास

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राग सूहौ

सूच्छम चरन चलावत बल करि ।
अटपटात, कर देति सुंदरी, उठत तबै सुजतन तन-मन धरि ॥
मृदु पद धरत धरनि ठहरात न, इत-उत भुज जुग लै-लै भरि-भरि ।
पुलकित सुमुखीभई स्याम-रस ज्यौं जल मैं दाँची गागरि गरि ॥
सूरदास सिसुता-सुख जलनिधि, कहँ लौं कहौं नाहिं कोउ समसरि ।
बिबुधनि मनतर मान रमत ब्रज, निरखत जसुमति सुख छिन-पल-धरि ॥

(श्यामसुन्दर) छोटे-छोटे चरणों को प्रयत्न करके चलाते हैं । (चलने के लिये जोर लगा रहे हैं ।) जब लड़खड़ाते हैं, तब माता हाथों का सहारा देती हैं, फिर भली प्रकार प्रयत्न में मन और पूरा शरीर लगाकर उठ खड़े होते हैं, कोमल चरण पृथ्वी पर रखते तो हैं पर वह ठहरता नहीं है पर माता दोनों हाथ फैलाकर भुजाओं के बीच में पकड़कर बार-बार सँभाल लेती हैं, सुमुखी माता श्यामसुन्दर की क्रीड़ा के रस में पुलकित हो रही हैं (और ऐसी निमग्न हो गयी हैं ) जैसे पानी में कच्चा घड़ा गल गया हो । सूरदास जी कहते हैं कि श्याम तो बाल-सुख के समुद्र हैं, कहाँ तक वर्णन करूँ, कोई उनकी तुलना करने योग्य नहीं है । देवताओं को भी अपने मन से तुच्छ समझकर ये व्रज में क्रीड़ा कर रहे हैं, जिसे माता यशोदा आनन्दित हुई प्रत्येक पल, प्रत्येक क्षण, प्रत्येक घड़ी देख रही हैं ।