भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जसुमति दधि मथन करति / सूरदास

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:22, 28 सितम्बर 2007 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जसुमति दधि मथन करति, बैठे बर धाम अजिर, ठाढ़ै हरि हँसत नान्हि दँतियनि छबि छाजै ।
चितवत चित लै चुराइ, सोभा बरनि न जाइ, मनु मुनि-मन-हरन-काज मोहिनी दल साजै ॥
जननि कहति नाचौ तुम, दैहौं नवनीत मोहन ,रुनक-झुनक चलत पाइ, नूपुर-धुनि बाजै ।
गावत गुन सूरदास, बढ्यौ जस भुव-अकास, नाचत त्रैलोकनाथ माखन के काजै ॥

परमश्रेष्ठ नन्दभवन के आँगन में दही मथती हुई श्रीयशोदा जी बैठी हैं । (उनके पास) खड़े श्याम हँस रहे हैं, उनके छोटे-छोटे दाँतों की छटा शोभित हो रही है । देखते ही वह चित्त को चुरा लेती है, उसकी शोभा का वर्णन नहीं किया जा सकता, ऐसा लगता है मानो मुनियों का मन हरण करने के लिए मोहिनियों का दल सज्जित हुआ है । मैया कहती हैं- मोहन ! तुम नाचो तो तुम्हें मक्खन दूँगी' (इससे नाचने लगते हैं)चरणों के चलने से रुनझुन नूपुर बज रहे हैं । सूरदास (अपने प्रभु का) गुणगान करते हैं - `प्रभो ! आपका यह (भक्त-वात्सल्य) सुयश पृथ्वी और स्वर्गादि में विख्यात हो गया है कि त्रिलोकी के स्वामी (भक्तवत्सलतावश) मक्खन के लिये नाच रहे हैं ।