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इश्तहारों के वायदे / अभिमन्यु अनत
Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:24, 7 जून 2012 का अवतरण
उस सरगर्मी की याद दिलाते
कई परचे कई इश्तहार आज भी
गलियों की दीवारों पर घाम-पानी सहते
चिपके है अपनी अस्तित्व-रक्षा के लिए
उन पर छपे लम्बे-चौड़े वायदों पर
परतें काई की जमीं जा रही है।
जिन्हें देखते-देखते
आँखें लाल हो जाती है।
तुम्हारे पास पुलिस है हथकड़ियाँ हैं
लोहे की सलाखें वाली चारदिवारी है
मुझे गिरफतार करके चढ़ा दो सूली
उसी माला को रस्सी बनाकर
जो कभी तुम्हें पहनाया था
क्योंकि मैंने तुम्हारे ऊपर के विश्वास की
बड़ी बेरहमी से हत्या कर दी है।
इस जुर्म की सज़ा मुझे दे दो।
मैं इन इश्तहारों को
अब सह नहीं पा रहा हूँ।