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क़तअ़ात / ‘अना’ क़ासमी

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ये हक़ीकत है ऐ दिले-नादाँ
तुझको ये मानना भी मुश्किल है
चेहरे इतने बदल चुका अब तक
ख़ुद को पहचानना भी मुश्किल है



फिर नया ज़ख़्म नयी एक ग़ज़ल की सूरत
जैसे मुमताज का ग़म ताजमहल की सूरत
आज भी कितने मसीहा लिये फिरते हैं सलीब
देख मज़दूर के कांधे पे ये हल की सूरत