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इतिहास की हवा / अज्ञेय

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(1)
झरोखे में से बहती हवा का एक झोंका इतराता आता है
और इतिहास के पन्नों को उड़ाता चला जाता है
दिक्चक्रवाल से सिमट कर चाँदनी झरोखे से झरती हुई
बिल्लौर-सी जम जाती है।

जमी हुई चाँदनी के झलमलाते ताजमहल के नीचे
बागडिय़ों के झोंपड़ों के छप्पर उभर आते हैं
जिन के खर के आरी सरीखे किनारे मानो आँखों की कोरों को
चीर जाते हैं-
और छप्पर की छत पर बैठी एक भैंस पागुर कर रही है।

इतिहास के पन्नों पर पगुराती हुई भैंस की आँखों में
इतिहास के और पन्ने हैं।
और उन में इतराती हुई बहकी हवाओं के दूसरे झोंके।
बागडिय़ों के झोंपड़ों से झाँकते हैं जाने कितने चापहीन एकलव्य :
भैंस की आँखें मानो द्रोण की मिट्टी की मूरतें हैं।

ताजमहल के शिल्पियों के हाथ कटवा दिये गये थे,
द्रोणाचार्य ने एकलव्य का अँगूठा माँग लिया था,
अभिनव द्रोण किन्तु कहता है :
'वत्स, वीर,
धरो चाप, साधो तीर, धरती को विद्ध करो-
अमृत-सा कूप-जल यहीं फूट निकले!'
और फिर चुपके से एकलव्य के नये कुएँ में भाँग डाल देता है।
(एकलव्य एक है
और आज आस्था भी उस में क्या जाने कहीं कम हो-
क्या जाने वह अँगूठा भी दे न दे-
पर कुएँ का पानी तो समाज पिएगा!)

असंख्य झोंपडिय़ों से असंख्य बागडिय़े एकलव्य
आते हैं, कमान तानते हैं, तीर साधते हैं,
कुएँ से पानी पीते हैं,
और फिर कहते हैं : धन्य, धन्य, गुरुदेव,
आपने अगूँठा नहीं माँगा जो :
पितरों को नहीं तो हम क्या दिखाते?
लीजिए : हमारे संस्कार हम देते हैं,
पुरखों के झोंपड़ों में आग हम लगाते हैं, घर-घर का भेद हम लाते हैं।
अपने को पराया नहीं, आप का!-बनाते हैं,
तनु हमें छोडि़ए, मन आप लीजिए,
आत्मा तो होती ही नहीं, धनु हमें दीजिए।
दिग्बोध हम मिटा देंगे, दिग्विजय आप कीजिए।

द्रोणचार्य आँखों में भाँग भर
झोंपड़े से ऊँचा उठाते हैं वरद कर,
भैंस भाँग खाती है
और सारे एकलव्य उस की आँखों में समा जाते हैं।

(2)

दिक्चक्रवाल से सिमट कर चाँदनी झरोखे से झरती हुई
बिल्लौर-सी जम जाती है :
बिल्लौर-सी, जिस में पहाड़ी झील का अपलक पानी है
नभ की ओर उठी हिमालय की अपलक गीली आँख का
जिस में मुनिवृन्द तपस्या में रत हैं
और उन की पोष्य राजहंसावलियाँ अविराम
नीर-क्षीर विविक्त करती विचरती हैं।

नहीं नहीं नहीं! ये हंसावलियाँ नहीं, ये ब्रह्मपुत्र की मछलियाँ हैं
जिन्हें चीनी सिपाहियों ने डायनामाइट लगा कर सन्न कर दिया है :
ये हज़ारों मछलियों की चिट्टी-चिट्टी पेटियाँ हैं जो धीरे-धीरे प्राणहीन
हो कर फूल जाएँगी
क्योंकि सिपाहियों को एक-आध मछली की भूख थी :
नहीं नहीं नहीं! ये हज़ारों मछलियों की हज़ारों उलटी हुई चिट्टी पेटियाँ
बिकिनी से बह कर आयी हुई प्रशान्त सागर की सम्पदा हैं
जिसे अमरीकियों ने विस्फोटित अणु की विकिरित शक्ति से
दूषित कर दिया है!
ये हंसावलियाँ नीर-क्षीर नहीं
अन्त-हीन सागर में विष-वपन कर रही हैं।

भैंस की आँखें-पहाड़ी झील का अपलक पानी-
हंसावलियाँ-मछलियाँ
इतिहास के धुँधुआते छप्परों और उड़ते हुए पन्नों पर
टाँके गये बिम्ब, प्रतीक, रूपक, संकेत!
क्योंकि ये झुंड के झुंड चिट्टे-चिट्टे गाले
वास्तव में हमारे उन किशोर शिक्षार्थी बालकों के विश्वास-भरे
चमकते चेहरों की
सहसा विजडि़त की गयी आँखें हैं
जिन के नैतिक मान हम ने आधुनिकता के विस्फोट में उड़ा दिये
और जिन के शिक्षा-स्रोत हम ने वशातीत विषों से दूषित कर दिये हैं।

क्या यह फूटा अणु हमारा व्यक्तित्व है?
हमारी आत्मा
हमारी इयत्ता है?

(3)

झरोखे में से बहकी हवा का एक झोंका इतराता हुआ आता है
और इतिहास के पन्नों को उड़ाता बिखेरता चला जाता है
दिक्चक्रवाल से सिमट कर चाँदनी झरोखे से झरती हुई
जम जाती है : वह एक स्फटिक का मुकुर है
जिस में मैं अपना चेहरा देख सकता हूँ।

मेरे चेहरे में बागडिय़ों के झोंपड़ों से झाँकता है एकलव्य,
द्रोणाचार्य अभिसन्धि करते हैं
मुनियों की व्याजहीन आँखों में पोष्य राजहंस-माला नीर-क्षीर करती है।
लाख-लाख मछलियाँ पेटियाँ उलट कर दम तोड़ देती हैं :
मेरे चेहरे में भोले बालकों का भवितव्य का विश्वास है।

स्फटिक के मुकुर में मैं अपना चेहरा देख सकता हूँ :
लेकिन क्या वह चेहरा माँगा हुआ चेहरा है
और क्या मुझे लौटा देना होगा?

क्या जीवन-पिंड और कीड़े-मकोड़े, केंचुए-केकड़े,
विषैले-वनैले हिंस्र जन्तु से मानव तक की विकास-परम्परा
माँगी हुई है और मुझे लौटा देनी होगी?
क्या यह भोले बालकों के भवितव्य का विश्वास माँगा हुआ विश्वास है?
क्या यह इतिहास माँगा हुआ इतिहास है
क्या यह विवेक का मुकुर लौटा देना होगा
इस से पहले कि वह टूट जाय?

मुकुर उत्तर नहीं देता :
न दे, मुकुर उत्तरदायी नहीं है।
इतिहास उत्तर नहीं देता, इतिहास भी उत्तरदायी नहीं है :
परम्परा भी उत्तरदायी नहीं है। चेहरा भी उत्तरदायी नहीं है।
पर झरोखे में से इतराता हुआ बहकी हवा का झोंका पूछता है :
मैं, मैं, क्या मैं भी उत्तरदायी नहीं हूँ?
इतिहास के प्रति, चेहरे के प्रति,
परम्परा के प्रति, मुकुर के प्रति-
बालकों के भवितव्य के भोले विश्वास के प्रति
क्या मैं उत्तरदायी नहीं हूँ?

दिल्ली (बस में), 6 अक्टूबर, 1954