भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अगर बदल न दिया / फ़िराक़ गोरखपुरी
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:19, 25 अक्टूबर 2020 का अवतरण
अगर बदल न दिया आदमी ने दुनियाँ को,
तो जान लो कि यहाँ आदमी कि खैर नहीं.
हर इन्किलाब के बाद आदमी समझता है,
कि इसके बाद न फिर लेगी करवटें ये ज़मीं.
बहुत न बेकसी-ए-इश्क़ पर कोई रोये,
कि हुस्न का भी ज़माने में कोई दोस्त नहीं.
अगर तलाश करें,क्या नहीं है दुनियाँ में,
जुज़ एक ज़िन्दगी कि तरह ज़िन्दगी कि नहीं.