भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कसौटी / जयशंकर प्रसाद

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:13, 17 अक्टूबर 2007 का अवतरण

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुखपृष्ठ: झरना / जयशंकर प्रसाद


तिरस्कार कालिमा कलित हैं,

अविश्वास-सी पिच्छल हैं।

कौन कसौटी पर ठहरेगा?

किसमें प्रचुर मनोबल है?


तपा चुके हो विरह वह्नि में,

काम जँचाने का न इसे।

शुद्ध सुवर्ण हृदय है प्रियतम!

तुमको शंका केवल है॥


बिका हुआ है जीवन धन यह

कब का तेरे हाथो मे।

बिना मूल्य का , हैं अमूल्य यह

ले लो इसे, नही छल हैं।


कृपा कटाक्ष अलम् हैं केवल,

कोरदार या कोमल हो।

कट जावे तो सुख पावेगा,

बार-बार यह विह्वल हैं॥


सौदा कर लो बात मान लो,

फिर पीछे पछता लेना।

खरी वस्तु हैं, कहीं न इसमें

बाल बराबर भी बल हैं ॥