भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पानी के बाहर भी / अनूप अशेष
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:22, 27 जून 2013 का अवतरण
दिन हथकड़ियों के
बेड़ी में पाँव फँसे।।
सुबह-सुबह भी जैसे
काली रात खड़ी,
इस स्वाधीन
समय में
मुर्दा जात बड़ी।
पानी के बाहर भी
कोई जाल कसे।।
छोटों के दिन
बड़े-बड़ों के पेटों के,
भीतर धँसी
सलाखों
बाहर आखेटों के।
चीन्ह-चीन्ह कर मारा
उनके घाव हँसे।।
जिनके शासित हम
भूमंडल के पाखी,
आसमान में उनके
लटकी
अपनों की बैसाखी।
ताक़त की सत्ता में
आदम कहाँ बसे।।