भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आदमी और सीढ़ियाँ / मिथिलेश श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:26, 25 सितम्बर 2013 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बहुत नीचे तक
आदमी के भीतर
उतरती हैं सीढ़ियाँ
जैसे गुफ़ा के अन्धेरे में

एक साथ सारी सीढ़ियाँ चढ़ता
और उतरता है आदमी
हाँफता नहीं है
खाँसता भी नहीं है
आदमी को जादूगर बनाती हैं सीढ़ियाँ
आदमी को याद रहने लगती हैं
सिर्फ़ सीढ़ियाँ

वह जितनी तेज़ी से
चढ़ता उतरता है सीढ़ियाँ
वह मानता है
उसका मान बढ़ता ही जाता है
पसीने से भीगे हुए लोग
किनारे होने लगते हैं

उसकी सीढ़ियाँ उसके लिए
कम पड़ने लगती हैं जब
वह चढ़ने लगता है किसी की भी सीढ़ियाँ
और धम-धम कर
सीढ़ियों में हो जाता है ओझल ।