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टाबर / जितेन्द्र सोनी
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बाळपणैं में
सोय जांवतो मां री खोळां
खेलण नै बाफर ही
फगत एक खटोलड़ी।
पीसां रो अरथ हो फगत
फाँक संतरै वाळी।
नान्हो-सो हो डील
फगत इतरो कै
ल्हुक ज्यांवतो
माटली लारै।
हरेक सिंझ्यां लावती
म्हारै सारू
धूड़ रो फूल
जिणनै निरख-निरख
बजांवतो ताळी
रेवड़ री टाली
गाय-बछडिय़ां रै मेळ रो
निराळो सुर
भांवतो हो म्हानै
भांवती ही बा उडती खंख
जिणरी सौरम
म्हारै मन में बसी है
अजे तक।
बाळपणो मनभावणो म्हारो
जिणमें कदे लड़्या,
कदे मिल्या,
मुळक्या,
खिल्या।
कदे ही नीं चिणी म्हे भींत
मन रै आंगणियां,
नीं जाणी तेर-मेर
जाणता हा
आखै बास री रोट्यां रो सुवाद।
आज नीं ल्हुक सकूं
म्हारै कूड़ै बड़प्पण सूं
सोचूं-
आछो होवै है टाबर होवणो
पण कित्तो दोरो है आज
टाबर होवणो?