भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चट्टान पर चीड़ / लीलाधर जगूड़ी
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:49, 5 फ़रवरी 2011 का अवतरण
पानी पीटता रहा, हवा तराशती रही चट्टान को
दरारों के भीतर गूँजती हवा कुछ धूल छोड़ आती रही हर बार
कुछ धूप कुछ नमी कुछ घास बन कर उग आती रही धूल
धूल में उड़ते हैं पृथ्वी के बीज
छेद में पड़े बीज ने भी सपना देखा
मातृभूमि में एक दरार ही उसके काम आई
चट्टान को माँ के स्तन की तरह चुसते हुए बाहर की पृथ्वी को झाँका
हठी और जिद्दी वह आखिर चीड़ का पेड़ निकला
जो अकेला ही चट्टान पर जंगल की तरह छा गया
उस चीड़ और चट्टान को हिलोरने
चला आ रही है नटों की तरह नाचती हवा
कारीगरों की तरह पसीना बहाती धूप
चट्टान और पेड़ को भिगोने
आँधी में दौड़ती आ रही है बारिश ।