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इन पड़ावों से / गुलाब सिंह

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इन पड़ावों से उबरना
और बढ़ना,
कुएँ की दीवार चढ़ना।

हाथ-पाँवों से सटी काई
जल सतह पर
थरथराती
मौन परछाईं,

देह साधे झुके रहना
या सँभल कर
झूलती घासें पकड़ना।

आ रही आवाज़
सूरज चाँद तारे
दूर हमसे हैं मगर-
हैं तो हमारे,

जब न पृथ्वी सच रही
या बच रही
चाहिए आकाश गढ़ना।

जिन्दगी के शब्द अर्थों से
कटी बारह खड़ी,
स्याह पट्टी पर समय की
सहमती आँखें गड़ीं,

खींचकर के कान
हर दिन पूछता है-
क्या लिखा है, अबे पढ़ ना?