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वर्षा की रात / जीवनानंद दास

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वर्षा की गहरी अन्धेरी रात में,
खुल जाती है नींद,
शोर सुन — दूर समुद्र की लहरों का ।

कब की थम चुकी है वर्षा,
जाती है जितनी दूर दृष्टि,
दिखलाई पड़ता है काला आकाश —
थामे हुए धरती के छोर को बाँहों में,
सुनते हुए शोर सागर का ।

लगता है दूर आकाश में — दूर कहीं ऊपर
सबसे ऊपर, नीरव आकाश में —
खुल रहे हैं दरवाज़े विशाल,
फिर हो रहे हैं बन्द । लगता है ।

सोते हैं तकियों पर रखे हुए सिर जो —
सोते हैं : जागने को कल सुबह ।
हँसी, प्रेम, मुखरेखाएँ गई थीं जो समा
पृथ्वी के प्राचीनतम पत्थरों में —
अन्धेरे में —
उठती है जाग धीरे-धीरे
आज रात ढूँढ़ कर लाती हैं वे मुझको
पृथ्वी के अविचलित पंजर से ।

सहसा थम जाती हैं लहरें सब
जैसे समुद्र की —
मीलों तक लेटी है धरती चुपचाप ।

मेरे कन्धों पर कुहराया हाथ रख
कहता है कोई फुसफुसाकर कानों में —
मैं यदि कर सकता स्पर्श उन दरवाज़ों को,
करता, आज जैसी गहरी रात में ।
खोल कर आँखें मैं —
करता हूँ प्रवेश उन दुहरे दरवाज़ों में
धूसर बादल की तरह :
भीतर चला जाता हूँ — उस खुले मुँह में ।

(यह कविता ’महापृथिवी’ संग्रह से)