भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

देवदेव चौपदे / हरिऔध

Kavita Kosh से
Gayatri Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:32, 19 मार्च 2014 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अब बहुत ही दलक रहा है दिल।
हो गईं आज दसगुनी दलकें।
ऊबता हूँ उबारने वाले।
आइये, हैं बिछी हुई पलकें।

डाल दे सिर पर न सारी उलझनें।
जी हमारा कर न डाँवाडोल दे।
इन दिनों तो है बिपत खुल खेलती।
तू भला अब भी पलक तो खोल दे।

कुछ बनाये नहीं बनी अब तक।
जान पर आ बनी बचा न सके।
हम कहें क्या तपाक की बातें।
आप की राह ताक ताक थके।

मान औ आन बान महलों पर।
डाह बिजली अनेक बार गिरी।
हो गये फेर में पड़े बरसों।
आप की दीठ आज भी न फिरी।

बैर है बरबाद हम को कर रहा।
फूट का है दुंद घर घर में मचा।
हम बचाये बच सकेंगे आप के।
आप मत अपनी निगाहें लें बचा।

हम बड़े ही बखेड़िये होवें।
आप यों मत उखेड़िये बखिये।
पास करना अगर पसंद नहीं।
गाह गाहें निगाह तो रखिये।

गत हमारी बना रहे हो क्यों।
मिल न, गद की सकी हमें लकड़ी।
पाँव हम तो रहे पकड़ते ही।
पर कहाँ बाँह आप ने पकड़ी।

देखिये आप आ कलेजे में।
पड़ गये कुछ अजीब छाले हैं।
आप के हाथ अब निबाह रही।
आप ही चार बाँहवाले हैं।

खोलिये पलकें दया कर देखिये।
मूँछ के भी बाल अब हैं बिन रहे।
दिन फिरेंगे या फिरेंगे ही नहीं।
ऊब दिन हैं उँगलियों पर गिन रहे।

अब नहीं है निबाह हो पाता।
नेह करिये निहारिये हम को।
क्या उबर अब नहीं सकेंगे हम।
हाथ देकर उबारिये हम को।

पास मेरे इधर उधर आगे।
है दुखों का पड़ा हुआ डेरा।
है गई अब बुरी पकड़ पकड़ी।
आप आ हाथ लें पकड़ मेरा।

फिर रही है बुरी बला पीछे।
खोलता दुख बिहंग है फिर पर।
बेतरह फेर में पड़े हम हैं।
फेरते हाथ क्यों नहीं सिर पर।

बह रहे हैं बिपत लहर में हम।
अब दया का दिखा किनारा दें।
क्या कहूँ और-हूँ बहुत हारा।
प्रभु हमें हाथ का सहारा दें।

क्यों दिखाने में अँगूठा दीन को।
आप की रुचि आज दिन यों है तुली।
हैं तरसते एक मूठी अन्न को।
आप की मूठी नहीं अब भी खुली।

दें न हलवे छीन तो करवे न लें।
नाथ कब तक देखते जलवे रहें।
कब तलक बलवे रहेंगे देस में।
कब तलक हम चाटते तलवे रहें।