भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नंगी पीठ पहाड़ों की / राजेन्द्र गौतम
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:09, 29 मई 2014 का अवतरण
नंगी पीठ पहाड़ों की ।
बादल ने फटकारे कोड़े
औचक ही जब
जलधारा के
खाल बैल की
सिहरा करती ज्यों
पाकर चुभन अनी की
सिहर उठी यों विन्ध्याचल में
नंगी पीठ पहाड़ों की ।
लप-लप बिजली की तलवारें
दसों दिशाएँ भाँज रही हैं
रणभेरी तब
बजी दूर से
विंध्याचल में फैल गई जब
तड़-तड़ गूँज
नगाड़ों की
नंगी पीठ पहाड़ों की ।
साखू के
गहरे जंगल में
मेघ गीत गाती है
विंध्याचल कन्याएँ
दे-दे कर ताली
दूर गए वे तपते दिन
दूर बहुत हैं बातें अब
उन ठिठुराते जाड़ों की
सिहर उठी है
नंगी पीठ पहाड़ों की ।