भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सावन की गंगा / बुद्धिनाथ मिश्र
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:51, 20 जुलाई 2014 का अवतरण
सावन की गंगा जैसी
गदराई तेरी देह ।
बिन बरसे न रहेंगे अब
ये काले-काले मेघ ।
मन की नाव बहक जाती
अक्सर जाने किस ओर
पाल बनी जब से तेरी
कोरे आँचल की कोर ।
पग-पग पर टोकता
उभरते भँवरों का सन्देह ।
बिन बरसे न रहेंगे अब
ये काले-काले मेघ ।
बड़े-बड़े चेतन मधुकर भी
कर बैठेंगे भूल
अधर बिखेरेंगे तेरे
जब पारिजात के फूल ।
थाले में परिचय के
पनपा है नन्हा-सा नेह ।
बिन बरसे न रहेंगे अब
ये काले-काले मेघ ।
सुलगे क्यों न छुअन की
पीड़ा में पल्लव का अंक
काँटों-से भी जहरीले होते
फूलों के डंक ।
तपती रेत डगर की
जलकर मन्मथ हुआ विदेह ।
बिन बरसे न रहेंगे अब
ये काले-काले मेघ ।