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मुफ्त में / स्वप्निल श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
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हमें तो मुफ्त में नहीं मिलते दुख
न जाने कैसे लोग मुफ्त में
हासिल कर लेते हैं खुशी
जो चीजें बाजार में मुफ्त मिलती हैं
वह भी मुझे खरीदनी पड़ती हैं
कुछ लोगों के पास घुटनों के बल
चलकर आती हैं चीजें
और सीधे उनके हरम में दाखिल
हो जाती हैं
न चेहरा न मोहरा बरबस उनपर
फिदा हो जाती हैं सुन्दरियां
यह जेब को देख कर प्रेम करने का
वक्त है
जो सचमुच में प्रेम करना चाहते हैं
बेरोजगारी में उनकी जेब खाली है
गरीबों के पास नहीं आते अन्न
उन्हें अमीरों के कोठार पसन्द हैं
अजीब अजीब खेल हैं दुनियां में
यहां जादूगरों की कमी नहीं है