भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नौजवानों से / कांतिमोहन 'सोज़'

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:33, 18 नवम्बर 2014 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बढ़े मजूर उनके साथ चल रहे किसान !
उठो निशान थामकर वतन के नौजवान !!

उबल रही हैं ख़ून में जूनून की कहानियाँ
नई दिशा दिखा रही हैं वक़्त की निशानियाँ
हवा-सी घूम-घूमकर घटा-सी झूम-झूमकर
नई ज़मीन तोड़ने निकल पड़ीं जवानियाँ
सरों पे सबके है कफ़न हथेलियों पे जान !
उठो निशान थामकर वतन के नौजवान !!

नज़र-नज़र उठा रही है लाख-लाख आँधियाँ
नज़र-नज़र गिरा रही है लाख-बिजलियाँ
जो लाख आँधियाँ उठें जो लाख बिजलियाँ गिरें
कहाँ बचेंगे इस जहाँ में ज़ालिमों के आशियाँ
बराबरी की नींव पर उठे नया मकान !
उठो निशान थामकर वतन के नौजवान !!

बला का ज़लज़ला है थरथरा रही पहाड़ियाँ
ग़रूरे-इन्क़लाब से दमक रही हैं खाड़ियाँ
जो खेल जायँ जान पर चमन की आन-बान पर
वो जांसिपर हसीन गुल खिला रही हैं झाड़ियाँ
क़दम मिलाके चल पड़े मजूर और किसान !
उठो निशान थामकर वतन के नौजवान !!