भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
समरपण / राजू सारसर ‘राज’
Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:29, 28 अक्टूबर 2016 का अवतरण
थूं,
हरमेस
सजै संवरै,
सो ‘ळा सिंणगार करै
म्हारै सारू
पण
कांई थूं कदैई करै
थारै निज सारू ?
थारै अै भाव-भगिमावां
मनस्यावां
चैरे री हांसी खिलखिळाट
आरसी नैं देख ’र ई
नीं बिलमावै थारो मन।
कांई थारौ मन,
थानैं नी कचौटे
निज रै साथै
सदीव सूं होवणियै
इण अन्याव सारू
कै थूं बणगी, आतमतोखी
थर लिछमी
फगत म्हारै सारू
म्हारै सुख सारू।