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कार्तिक का पहला गुलाब. / इला कुमार

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कार्तिक का पहला गुलाब

सुर्ख पंखिरयाँ सुबह की धूप में

तमाम पृथ्वी को अपनी चमक से आंदोलित करती हुई

तहों की बंद परत के बीच से सुगंध भाप की तरह ऊपर उठती है


वह मात्र सुगंध है गुलाब नहीं

वह रंग

वह गंध

वह पंखिरयों के वर्तुल रूपक में लिपटा

कोमलता, सुकुवांर्ता, सौंदर्य प्रतीक


दृष्टी दूर तक स्वयं के संग जाना चाहती है

कार के शीशे चढ़ाती गिराती भंगिमाओं के बीच

मालिकाना भाव से पोषित तत्व को सम्पूर्णता में परख लेना चाहती है


मान्यताओं की स्थापना के बीच

वक्त बीतता हुआ

अचानक दम लेने को ठमक जाता है