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खुलता हूँ / कैलाश मनहर
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खुलता हूँ,
किसी वीरान बीड़ में बनी
कोठरी के
जर्जर किवाड़ों की तरह
चरमराता....
खुलता हूँ,
किसी दुर्गम पहाड़ की तलहटी के
गह्वर में
धुँधलाई आँखों की तरह
सरसराता....
खुलता हूँ,
किसी सूखे हुए पोखर के ढूहे पर
दीमक की
बाँबी से निकलती मिट्टी-सा
भुरभुराता.....
खुलता हूृँ,
किसी पके हुए फोड़े के मुहाने की
नोक पर
पैनी धार की तरह
थरथराता....
खुलता हूँ,
ताज़ा हवा के लिए
उजली हँसी के लिए,
सच की तलाश में,
जीवन की आस में --
बार-बार खुलता हूँ...