भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पैने चाकू / रमणिका गुप्ता

Kavita Kosh से
Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:21, 13 अक्टूबर 2015 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं
पंख फैलाए
बांधे पंखों में हवा
उन्मत्त मदमस्त उन्मुक्त
गगन में उड़ती थी...

रास नहीं आया उन्हें मेरा उड़ना

वे
पंजे पजा कर
चोंत तेज कर
धारदार पैनी नजरों से
मेरे
पंख काटने को उद्यत
बढ़े आ रहे मेरी ओर बाज-गति से
घेरते गगन
गिद्धों-से

वे मुझे डराना चाहते

मैं
तैर रही थी पंखों के सहारे
हवा में
उड़ रही थी क्षितिज-रेख पर
गगन के किनारे-किनारे
डरी-डरी सी उतरी
धरा पर
आश्रय खोजती
आ बैठी सूखे तरु पर
चुपचाप खोई-खोई दुबकी-सी
गुमसुम ताक रही आकाश...

जहां अब चाकू तैर रहे हैं

कैसे उडूं मैं
वहां बाज ताक रहे हैं?
कैसे चहकूं मैं
वहां गिद्ध तलाश रहे हैं?
क्या भूल जाऊं मैं उड़ना
चहकना चाहना फुदकना
उन्मुक्त मदमस्त हो गाना?

यही तो वे चाहते

वे उड़ें निर्बाध
मैं दुबकी रहूं कोटर में
वे घेर लें आकाश
मैं धरती से सटी-सटी पड़ी रहूं बेआस
वे मदमस्त हवा में तैरें-
उन्मुक्त
मैं पंख बचाने की फिक्र में
जीने की फिराक में
नजरों से बचती फिरूं
छिपती फिरूं
नहीं...होगा नहीं यह

नहीं होंगे कामयाब वे

तेज चोंचों के वार से
टुंग कर
नुकीले पंजों की पकड़ से
गुद कर
पैनी नजरों की धार से
कट कर
चिर कर
उन्हें भोथरा करने के लिए
जरूरी ही है खोलना पंख
तो खोलूंगी मैं

विकल्प उड़ना ही है तो उडूंगी मैं

मेरे होने के इजहार के लिए
विकल्प
वजूद का मिटना ही है
तो मिटूंगी मैं
पर चाकुओं को हवा में तैरने से
रोकूंगी मैं! रोकूंगी मैं! रोकूंगी मैं!