भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कुछ दिन / रश्मि भारद्वाज

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:39, 20 जून 2016 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कुछ दिन बड़े कठिन होते हैं
जब मेरी आँखों में तैर जाते हैं कामना के नीले रेशे
लाल रक्त दौड़ता है दिमाग से लेकर
पैरों के अँगूठे तक
एक अनियन्त्रित ज्वार
लावे-सा पिघल-पिघल कर बहता रहता है
देह के जमे शिलाखण्ड से
मैं उतार कर अपनी केंचुली
समा देना चाहती हूँ ख़ुद को
सख़्त चट्टानों के बीच
इतने क़रीब कि वह सोख ले मेरा उद्दाम ज्वर
मेरा सारा अवसाद, मेरी सारी लालसा
और मैं समेट लूँ ख़ुद में उसका सारा पथरीलापन
ताकि खिल सके नरम फूल और किलकती कोमल दूब
कुछ दिन बड़े कठिन होते हैं
जब भूल कर और सब कुछ
मैं बन जाती हूँ सिर्फ़ एक औरत
अपनी देह से बँधी
अपनी देह से निकलने को आतुर
चाहना के उस बन्द द्वार पर दस्तक देती
जहाँ मेरे लिए अपनी मर्ज़ी से प्रवेश वर्जित है