भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

क़ातिल जब मसीहा है / शहनाज़ इमरानी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:02, 10 जुलाई 2016 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सिर्फ़ लात ही तो मारी है
भूखा ही तो रखना चाहते हैं वो तुम्हें
नादान हो तुम भीख माँगते हो
तुम रोटी की बात करते हो
सरकार के रहनुमा के आगे
जो मुग्ध हैं खुद के आत्मसम्मोहन में

न्याय और अन्याय की जंग में
जहाँ सच को गवाह नहीं मिलता
ख़ुदाओं की इस दुनियां में

तुम्हारे पास है सिर्फ़ दुआ
जो तुम रो कर, चीख़ कर
या हाथ फैला कर करो
कोई भी कुछ नहीं कहेगा