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बराबर चल रहे हो और फिर भी घर नहीं आता / द्विजेन्द्र 'द्विज'

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बराबर चल रहे हो और फिर भी घर नहीं आता

तुम्हें यह सोचकर लोगो, कभी क्या डर नहीं आता


अगर भटकाव लेकर राह में रहबर नहीं आता,

किसी भी क़ाफ़िले की पीठ पर ख़ंजर नहीं आता


तुम्हारे ज़ेह्न में गर फ़िक्र मंज़िल की रही होती

कभी भटकाव का कोई कहीं मंज़र नहीं आता


तुम्हारी आँख गर पहचान में धोखा नहीं खाती

कोई रहज़न कभी बन कर यहाँ रहबर नहीं आता


लहू की क़ीमतें गर इस क़दर मन्दी नहीं होतीं

लहू से तर—ब—तर कोई कहीं ख़ंजर नहीं आता


अगर गलियों में बहते ख़ून का मतलब समझ लेते

तुम्हारे घर के भीतर आज यह लशकर नहीं आता


तुम्हारे दिल सुलगने का यक़ीं कैसे हो लोगों को,

अगर सीने में शोला है तो क्यों बाहर नहीं आता