Last modified on 25 जून 2008, at 20:17

रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 6

विक्रमी पुरुष लेकिन सिर पर, चलता ना छत्र पुरखों का धर.

अपना बल-तेज जगाता है, सम्मान जगत से पाता है.

सब देख उसे ललचाते हैं,

कर विविध यत्न अपनाते हैं


कुल-गोत्र नही साधन मेरा, पुरुषार्थ एक बस धन मेरा.

कुल ने तो मुझको फेंक दिया, मैने हिम्मत से काम लिया

अब वंश चकित भरमाया है,

खुद मुझे ढूँडने आया है.


लेकिन मैं लौट चलूँगा क्या? अपने प्रण से विचरूँगा क्या?

रण मे कुरूपति का विजय वरण, या पार्थ हाथ कर्ण का मरण,

हे कृष्ण यही मति मेरी है,

तीसरी नही गति मेरी है.