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पत्थर विमर्श / लीलाधर जगूड़ी

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पत्थरों को न मरा हुआ घोषित किया जा सकता है

न स्पंदित जीवन की तरह विकासमान

लाखों सालों से वे अन्य चीज़ों की अपेक्षा कम ह्रासमान हैं


फिर भी प्रत्यक्ष दिखती वास्तविकता से

पत्थरों को पत्थर कह कर बरी नहीं किया जा सकता


जैसे वे हैं और जैसा उन्हें बनने का मौका मिला

वैसा बने रहने के अलावा उनमें पत्थर होने की

और भी बहुत सी काबिलियतें हैं

यह भी कि वे अपने भरोसे बिल्कुल नहीं बदलते

विश्व की ठोस नश्वरता में

बस एक ही जगह अमर से दिखते रहते हैं वे

उनकी छीजन भरी नश्वरता सुदीर्घ जीवन के अंत में कहीं

कभी उन लोगों को दिखेगी

जिन्होंने उनकी शुरुआत को कल्पना में भी नहीं जाना होगा


पत्थरों में अपने आप किसी परिवर्तन को देखने के लिए

हमें हज़ारों साल के जीवन की भी ज़रूरत पड़ सकती है

सबसे अच्छे पत्थर वे है जो सुदृढ़ हैं

और यह जाने बिना भी बने हुए हैं कि उनके न हाथ हैं न पाँव

ये जाने बिना भी पड़े हैं कि सदियों

पथराये रहने के अलावा कुछ नहीं करना है

अपनी हृष्ट—पुष्ट सुस्ती में बिना दिमाग के सुस्ताते रहना है सदियों


अच्छे पत्थर त्वचा पर लेते हैं दिल पर नहीं

अच्छे पत्थरों में दरार नहीं होती

वे किसी को नहीं बताते कि उनके दिल आखिर हैं कहाँ?

किसी दीवार में चिने हुए?

किसी सड़क या किसी पुल पर बिछे हुए?

बिना यादगार अपने चट्टान माँ —बाप के सभी गुण लिए हुए

(पत्थरों पर उनके माँ —बाप लादना

मनुष्य भाषा की कमज़ोरी है)


पुल के नीचे उसे देखो

वह अब तक की किसी बाढ़ में सिर तक नहीं डूबा

वह एशिया और योरोप की तरह एक ओर से सँवलाया

दूसरी ओर से सफ़ेद और बीच में भूरा —सा दिख रहा है

प्रलय के समय के कुछ परमाणुओं ने उस पर

जनेऊ जैसी धारी बना रक्खी है

कुछ आस्थावान भारतीय कह सकते हैं कि श्वेत—श्याम वह

सीताराम,राधाकृष्ण सरीखा है

पर,सीता और राधा तो शूद्रों की तरह जनेऊ से वंचित थे

जनेऊ से न मनुष्यों को पहचानो न चीज़ों को

(जनेऊ निषेध के सूत्रों से बना है)


न वह पत्थर पुरुष है न स्त्री

पत्थर स्त्री—पुरुष नहीं होते

न स्त्री—पुरुष पत्थर होते हैं


जनेऊ छाप होने से वह पत्थर हिन्दू भी नहीं हैं

पत्थर भी जब प्रतीकों में बदल जाते हैं

सांप्रदायिक हो जाते हैं

जहाँ उस पर जनेऊ जैसी धारी है

शायद वहीं से फटेगा वह

उसके संगठन में वह विघटन की लकीर है


पत्थर हिन्दू नहीं होते और हिन्दू पत्थर नहीं होते

आदमियों की बुरी संगत के कारण

पदार्थों के भी धर्म और संप्रदाय हो जाते हैं

पदार्थों के अपने स्वभाव होते हैं

जिन्हे अपने फ़ायदे और नुक्सान के नज़रिये से

हम गुण —अवगुण की सूचियों में डाले रखते हैं

फिर भी सावधान रहना चाहिये कि कहीं ईश्वर—अल्लाह को हम

पत्थर में तो नहीं बदल रहे हैं

वह एक निचट्ट पत्थर है अनोखा और सुन्दर

धर्म से हो कर उस तक नहीं जाया जा सकता

नदी से हो कर जाना पड़ेगा

और उसके भीतर जाने का कोई दरवाज़ा भी नहीं


हो सकता है हम में से कोई उस में दरवाज़ा बना ले और गर्भ-गृह भी

पर सारी कला भी अपनी सहृदयता को उसकी हृदयहीनता में

एक बड़े—से छेद के रूप में ही बनाएगी

अंत:करण के नाम पर एक सुराख को मिलेंगी

पथरीली दीवारें


पत्थरों में न गर्भाशय होते हैं न शुक्राणु

पत्थर को ज़्यादा संख्या में पत्थर होने के लिए

टूटना पड़ता है

उत्तर आधुनिकता जैसा जड़ विखंडन नहीं होता

पत्थर का.