भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अरे वसंत!/ज्योत्स्ना शर्मा

Kavita Kosh से
वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:55, 7 फ़रवरी 2018 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


49
बीज खुशी के
मैं बो आई थी कल
उग आएँगे
कुछ पौधे प्यारे- से
प्रेम- रस भीने -से ।
50
अरे वसंत !
कैसी करो ठिठोली
लिए घूमते
ये पवन निगोड़ी
अनहोनी न हो ले ।
51
न मान करो
मेरे सखा वसंत
कहाँ बसाऊँ
तुम्हीं कहो तो ,मन
बसे हैं मेरे कन्त !
52
अरे फागुन
क्या गुनूँ तेरे गुन
सरस मन
गुनगुना ही उठे
रुत हुई मगन ।
53
सुनो रे पिया
अजब जादूगर
होरी मचाई
न रंग न गुलाल
हो गई मैं तो लाल ।
54
जलधारा -सी
उतरूँ जो निर्मल
तृषित धरा
संग में हरषाए
मुदित मना गाए ।
55
मैं बदरी -सी
अम्बर में छा जाऊँ
तपा सताए
रवि- कर निकर
बरसूँ सरसाऊँ ।
56
अरे सूरज !
जाने कहाँ खो गया
शीत सिहरा
कोहरे की चादर
ओढ़कर सो गया ।