दो पल अवकाश के / कविता भट्ट
अधखुले कंपित अधरों से,
मंद-मुस्कुराते नयनाभिराम के साथ,
प्रफुल्लित भावनाओं में बहकर,
हमारी हथेलियों को थाम अपने हाथ
उसने हमसे चाहा था-एक मधुर चुंबन।
कुछ विस्मित फैली हुई आँखों से,
उन्हें निहार रहे थे हम,
हर्षमिश्रित, आह्लादित मनोभावों से,
कुछ लाजयुक्त, सिमटे हुए से,
सीमित सीमाओं के बन्धन।
कामनाएँ थी असीम, अनन्त...सुख की चाह में,
ये क्या माँगा, व्यक्त किया, अपरिभाषित आशाएँ,
अव्यक्त को अभिव्यक्त करके,
एक कंपन, आनन्द स्फुरण,
अनजाने ही तुम छोड़ गए चिंतन।
जहाँ कल्पनाओं के अनन्त नभ में,
हम भी भरना चाहते थे उड़ानें,
जीवन की चाह थी कुछ ठहरने की,
नीरव, सूने मन की कली खिलना चाहती थी,
एक अभूतपूर्व दीर्घ स्मारित क्षण।
दो पक्षी उड़कर विस्तृत परों से,
प्रेमालाप, विहंगम दिशाओं में,
स्वच्छन्द नीलिमामय गगन में,
रहित सीमाविहीन कालखंड के भय से
संग-संग आनन्दित... विचरण।
कुछ ऐसा था यह हमारे लिए,
एक बूढ़ा वृक्ष जैसे,
धरती के गर्भ में,
अंकुरित होकर फिर से,
शैशव का कर रहा हो आलिंगन।
गर्मी के झुलसे दिनों से लेकर,
सर्द-कंपकंपाती रातों तक,
कितने ही कटु-संघर्ष,
घृणित पराजय और धुत्कार,
मन से भूल गए हम उस क्षण।
एक पूरे यात्रा-वृत्तान्त में
एक दीर्घ ठहराव से,
मचलकर आशाओं को मन ने,
बाँध दिया उद्वेगों ने,
रिश्तों की परिभाषा का नहीं था बंधन।
चाहते तो हम भी यही थे,
किंतु अव्यक्त भावों के सिंधु में,
मोती चटख रहा था,
सीपी के मुख में,
बूढे़ वृक्ष का नवांकुर में परिवर्तन।
हिचकियाँ ले रहा था,
गरिमामय हिमालय-मैदान में,
पिघलकर आना चाहती थी,
गंगा सागर की बाहों में,
क्या कहें? विधि का विधान या सामाजिक प्रचलन।
बर्फ—सी जीभ सूनी आँखें,
उद्वेलित द्रवित होकर अश्रुजल में,
अपने जीवन के उतार-चढ़ाव के,
अत्यंत जटिल कहने थे,
करुण क्रन्दन-रुदन भरे कथन।
किंतु तुम नहीं चाहते थे सुनना,
नारीरूप में प्रशंसा करके छोड़ देना,
कुछ मुस्कुराकर टाल देना,
केवल काया का मोहपाश बुनना,
संभवतः यही था तुम्हारा चलन।
कुछ घृणा से मुस्कुराई मैं,
विस्मित होकर रह गई मैं,
तुम्हारी इन चिर-परिचित कामनाओं पर,
नारी-मन को छलने की भावनाओं पर।
निर्मम छलिया प्रेमी की देहासक्ति-
काया को बाँहों में समेटने की,
सागर को अंजुल्यों में भरने की,
और रेत को मुठ्ठी में भरने की,
ज्वार-भाटा को चित्रित करने की,
रागों से मेघों को बरसाने की।
कामनाएँ! अनन्त कल्पित कामनाएँ!