भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मेघकाल में / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:10, 14 जुलाई 2008 का अवतरण
बादलों में छिप गये सब दृष्टि-सीमा तक सितारे !
- आज उमड़ी हैं घटाएँ,
- चल रहीं निर्भय हवाएँ,
- दे रहीं जीवन दुआएँ,
- उड़ रहे रज-कण गगन में,
- घोर गर्जन आज घन में,
- दामिनी की चमक क्षण में,
जब प्रकृति का रूप ऐसा हो गए ये दूर-न्यारे !
- जब बरसते मेघ काले,
- और ओले नाश वाले
- भर गये लघु-गहन नाले,
- विश्व का अंतर दहलता,
- मुक्त होने को मचलता,
- शीत में, पर, मौन गलता,
हट गए ये उस जगह से, हो गए बिलकुल किनारे !