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दोहा सप्तक-09 / रंजना वर्मा

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अन्नदान नित कीजिये, कर सबका सम्मान।
नयन झुका मुट्ठी खुले, हृदय नहीं अभिमान।।

हुआ बावरा यह जगत, कौन इसे समझाय।
सुमन गेह का छोड़ दे, कली कली मंडराय।।

रोज़ रोज़ आती नहीं, मन के द्वार बहार।
एक बार ही तो कली, करे भ्रमर से प्यार।।

हमें आप पर है पिता, अतुलनीय विश्वास।
लिखा आपकी आँख में, जीवन का इतिहास।।

तोड़ीं उम्मीदें सभी, खेला ऐसा खेल।
शायद तुमने कर लिया, शत्रु पक्ष से मेल।।

नीले पर्वत शिखर से, फूट बही जल धार।
शायद पत्थर हृदय में, भी है उपजा प्यार।।

श्वांसों में जब आ बसी, प्रेम प्यार की गन्ध।
पागल मन करने लगा, सपनों से अनुबन्ध।।