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द्रुपद सुता-खण्ड-29 / रंजना वर्मा

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पूछती हैं अबलायें, पति से-कहो हे नाथ !
धर्मराज सा क्या हमे, दांव पे लगाओगे ?
शकुनि कुचाली की कुचाल में फंसोगे यदि,
सच कहती हूँ प्रिय ! हमें हार जाओगे।
लाज जो रही न कुरु, सभा में ही अबला की,
भीष्म द्रोण जैसे न्यायी, धर्मी कहाँ पाओगे ?
किस की सभा में प्रिय ! होगी सुनवाई अब,
संग अबला के मान, अपनागंवाओगे।। 85।।

कहती है वनिता हे, कान्त ! बात सुनो मेरी,
शायद दुबारा फिर, कह नहीं पाऊँगी।
राज्य अनाचारियों का, जिस में बसे हो नाथ !
ऐसाअनाचार सुन, रह नहीं पाऊँगी।
भावों की अनवरत, स्नेह-सरिता से सदा,
बही हूँ तुम्हारे फिर, बह नहीं पाऊँगी।
जैसा अपमान आज, सहती द्रुपद-सुता,
ऐसा अपमान कभी, सह नहीं पाऊँगी।। 86।।

वृन्दावन के बिहारी, बनवारी वनमाली,
मोहिनी मधुर मन्द, मुरली बजाओ ना।
कितना पुकार रहीं, तुम्हें रानियाँ हों किन्तु,
राधिका की गोपियों की, टेर सुन धाओ ना।
करुणा करोगे उन, पे तो बाद में भी आज,
आ के इस भगिनी की, विपदा मिटाओ ना।
गज की पुकार सुन, धाये जो पयादे पाँव,
द्रौपदी पुकार सुन, अब चले आओ ना।। 87