ईश्वर को सूली / दुष्यंत कुमार
(बस्तर गोलीकांड पर एक प्रतिक्रिया)
मैंने चाहा था कि चुप रहूँ, देखता जाऊँ जो कुछ मेरे इर्द-गिर्द हो रहा है। मेरी देह में कस रहा है जो साँप उसे सहलाते हुए, झेल लूँ थोड़ा-सा संकट जो सिर्फ कडुवाहट बो रहा है। कल तक गोलियों की आवाज़ें कानों में बस जाएँगी, अच्छी लगने लगेंगी, सूख जाएगा सड़कों पर जमा हुआ खून ! वर्षा के बाद कम हो जाएगा लोगों का जुनून ! धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा। लेकिन मैंने देखा-- धीरे-धीरे सब ग़लत होता जाता है । इच्छा हुई मैं न बोलूँ मेरा उस राजा से या उसकी अंध भक्त प्रजा से क्या नाता है?
लेकिन सहसा एक व्याख्यातीत अंधेरा ढक लेता है मेरा जीवित चेहरा, और भीतर से कुछ बाहर आने के लिए छटपटाता है । एक उप महाद्वीपीय संवेदना सैलाब-सी उमड़ती है-अंदर ही अंदर कहीं से उस लाश पर अविश्वास-सी प्रखर, सीधी रोशनी पड़ती है- क्षत-विक्षत लाश के पास, बैठे हैं असंख्य मुर्दे उदास । और गोलियों के ज़ख्म देह पर नहीं हैँ। रक्तस्राव अस्थिमज्जा से नहीं हो रहा है । एक काग़ज़ का नक्शा है- ख़ून छोड़ता हुआ । एक पागल निरंकुश श्वान बौखलाया-सा फिरता है उसके पास शव चिचोड़ता हुआ ईश्वर उस 'आदिवासी-ईश्वर' पर रहम करे! सता के लंबे नाखूनों ने जिसका जिस्म नोच लिया! घुटनों पर झुका हुआ भक्त अब क्या इस निरंकुशता को माथा टेकेगा जिसने- भक्तों के साथ प्रभु को सूली पर चढ़ा दिया, समाचार-पत्रों की भाषा बदल दी, न्याय को राजनीति की शकल दी, और हर विरोधी के हाथों में एक-एक खाली बंदूक पकड़ा दी- कि वह- लगातार घोड़ा दबाता रहे, जनता की नहीं, सिर्फ़ राजा की, मुर्दे पैग़म्बर की मौत पर सभाएँ बुलाता रहे 'दिवस' मनाता हुआ, सार्वजनिक आँसू बहाता हुआ, नींद को जगाता हुआ, अर्द्ध-सत्य थामे चिल्लाता रहे।