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हम साँझ बन जाएँगे / रश्मि शर्मा

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कभी सोचा था

जैसे दूर क्षि‍ति‍ज में
धरती-अंबर
एकाकार नजर आते हैं
वैसे ही एक दि‍न
उजाले और रात की तरह
मि‍लकर
हम भी सांझ बन जाएंगे।

मगर अब हममें-तुममे
बस इतना
बाकी बच गया है
जैसे धरती और बादल का रि‍श्‍ता

इसलि‍ए
जब जी चाहे
बरस जाना तुम।

मैं धरती बन समेट लूंगी
अपने अंदर
सारे आरोप-प्रत्‍यारोप
और अहंकार तुम्‍हारा।

तुम्‍हारा प्‍यार
रेत में पड़ी बूँदों की तरह
वि‍लीन होता देखूँगी

मगर
प्रति‍कार में कभी
तुम सा
आहत नहीं करूंगी
उस हृदय को
एक क्षण के लि‍ए भी जि‍समें
 जगह दी थी तुमने


क्‍योंकि‍ मेरा प्‍यार
अदृश्‍य हवा है
जि‍से महसूसा जा सकता है
मगर देखा नहीं
तुम्‍हारी तरह बादल नहीं
जो
ठि‍काने बदल-बदल कर बरसे।