भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वह नभ कंपनकारी समीर / हरिवंशराय बच्चन

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:37, 1 अक्टूबर 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वह नभ कंपनकारी समीर,

जिसने बादल की चादर को

दो झटके में कर तार-तार,

दृढ़ गिरि श्रृंगों की शिला हिला,

डाले अनगिन तरूवर उखाड़;

होता समाप्‍त अब वह समीर

कलि की मुसकानों पर मलीन!

वह नभ कंपनकारी समीर।


वह जल प्रवाह उद्धत-अधीर,

जिसने क्षिति के वक्षस्‍थल को

निज तेज धार से दिया चीर,

कर दिए अनगिनत नगर-ग्राम-

घर बेनिशान कर मग्‍न-नीर,

होता समाप्‍त अब वह प्रवाह

तट-शिला-खंड पर क्षीण-क्षीण!

वह जल प्रवाह उद्धत-अधीर।


मेरे मानस की महा पीर,

जो चली विधाता के सिर पर

गिरने को बनकर वज्र शाप,

जो चली भस्‍म कर देने को

यह निखिल सृष्टि बन प्रलय ताप;

होती समाप्‍त अब वही पीर,

लघु-लघु गीतों में शक्तिहीन!

मेरे मानस की महा पीर।