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डर के किसी से छुप जाता है जैसे साँप खज़ाने में / मुनीर नियाज़ी

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डर के किसी से छुप जाता है जैसे साँप खज़ाने में
ज़र के ज़ोर से जिंदा हैं सब ख़ाक के इस वीराने में

जैसे रस्म अदा करते हों शहरों की आबादी में
सुबह को घर से दूर निकलकर शाम को वापस आने में

नीले रंग में डूबी आँखें खुली पडी थीं सब्ज़े पर
अक्स पड़ा था आसमान का शायद इस पैमाने में

दिल कुछ और भी सर्द हुआ है शाम-ए-शहर की रौनक में
कितनी ज़िया बेसूद गई शीशे के लफ्ज़ जलाने में

मैं तो 'मुनीर' आईने में ख़ुद को तक कर हैरान हुआ
ये चेहरा कुछ और तरह था पहले एक ज़माने में