भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अकेले कंठ की पुकार. / अजित कुमार
Kavita Kosh से
गीत जो मैंने रचे हैं
वे सुनाने को बचे हैं।
क्योंकि-
नूतन ज़िन्दगी लाने,
नई दुनिया बसाने के लिए
मेरा अकेला कंठ–स्वर काफ़ी नहीं है।
--इस तरह का भाव मुझ को रोकता है।
शून्य, निर्जन पथ, अकेलापन :
सभी कुछ अजनबी बन-–
मुखरता मेरी न सुनता
--टोकता है ।
इसलिए मुझ को न पथ के बीच छोड़ो
बेरुखी से मुँह न मोड़ो,
हो न जाऊँ बेसहारे ,
इसलिए तुम भूलकर वैषम्य सारे –
तालु–सुर–लय का नया सम्बन्ध जोड़ो।
ओ प्रगतिपन्थी । ज़रा अपने कदम इस ओर मोड़ो ।
राग आलापो, बजाओ साज़ ,
कुछ ऊँची करो आवाज़ –
मेरा साथ दो।
यह दोस्ती का हाथ लो।
फिर मैं तुम्हारे गीत गाऊँ,
और तुम मेरे:
कि जिससे रात जल्दी कट सके ,
यह रास्ता कुछ घट सके
हम जानते हैं:
विगह–दल तक साथ देंगे
भोर होते ही, उजेरे... मुँहअंधेरे।