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एक विज्ञापन / अजित कुमार

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सोचता हूँ-
गीत लिखने से कहीं अच्छा,
जुटा लूँ हर तरफ़ से क़ीमती सामान ।
और जितने उपकरण हैं गीत के-
मन को भुलाने, और धन की, और
जन की फ़िक्र से पीछा छुड़ाने के-
युवतियाँ, प्रेम, आँसू , विरह, पीड़ा,
सेक्स की अवरुद्ध क्रीड़ा,
सुप्त मन में गड़ी फाँसें,
गरम या ठंडी उसाँसें और
सपने हार के या जीत के-
सबको क़रीने से सजाऊँ,
ढोल ज़ोरों से शहर भर में बजाऊँ,
छाप कर परचे-
गली-सड़कों-घरों में पहुँच जाऊँ-

"प्रेमियो, साहित्यिको, विक्षिप्त कवियो ।
तम-भरे संसार के अनगिनत रवियो ।
मुफ़्त ले जाओ यहाँ से माल खुदरा,
कुछ दिनों से गीत का बाज़ार उतरा
है, इसीसे भूल सारा मान या सम्मान
सोचा है कि अब इस तरफ़ दूँगा ध्यान-
मैंने खोल ली है शहर में साहित्य के परचून की दूकान,
जिसमें 'मसि' तथा 'कागद', 'कलम' से ले
'विचारों' 'भावनाओं', 'कल्पनाओं' तक
मिलेंगे हर किसिम' हर ढंग के सामान ।
आए हैं समन्दर पार से 'लेटेस्ट माँडल',
काव्य-बाला को सजाने के लिए
रंगीन आभूषन तथा परिधान ।

आएँ आप, देखें और परखें,
करेंगे मुझ पर बड़ा उपकार ।
-अजितकुमार ।"